धर्म शब्द का गानहम हमेशा ही सुनते रहते है । धर्म यह कहता है, धर्म वह कहता है ।पर सच्चाई ये है की धर्म कुछ कहने सुनने की चीज नही है । धर्म की कोई परिभाषा नही है ।धर्म तो धारण किया जाता है , आत्मसात किया जाता है धर्म धारण करने पर हमारे अंदर एक आत्मविश्वास आ जाता है , जो हमे धर्म ke अनुरूप कार्य करने की शक्ति देता है । उचित अनुचित का ज्ञान करता है । धर्म और कर्म एक दुसरे के पूरक है । जहाँ धर्म प्रत्यक्ष है वहां कर्म अप्रत्यक्ष रूप से धर्म में समाहित होकर धर्म को पूर्ण करता है , जहाँ कर्म प्रत्यक्ष है वहां धर्म अप्रत्यक्ष रूप से कर्म में समाहित होकर कर्म को पूर्ण बनता है ।
धर्म तो हर परिस्थिति में एक ही रहता है । देश काल व्यक्ति और परिस्थिति के अनुसार कर्म बदलता रहता है । जैसे एक बिद्यार्थी का धर्म है केवल बिद्या अध्ययन जबकि दूसरी ओर उसी उम्र के गरीब मजदुर बच्चे का धर्म है म्हणत मजदूरी करके अपने छोटे भाई बहिन का पेट भरना । यहाँ धर्म नही बदला है केवल कर्म ही बदला है । दोनों ही अपना अपना धर्म निभा रहे है ।
एक और उदाहरन देखिये एक डाकू के डर से भागता हुआ एक व्यापारी साधू की jhopadi में आ कर छुप जाता है उसे विश्वास था की साधू डाकू से उसके प्राणों की रक्षा करेगा । तभी डाकू भागता हुआ आता है और साधू से पूछता है की क्या यहाँ पर कोई व्यक्ति आया है
मैंने नही देखा , साधू ने जवाब दिया
डाकू वहां से आगे चला जाता है और इस प्रकार उस व्यक्ति की जान बच जाती है ।
यहाँ पर किसी व्यक्ति की जान बचाना साधू का धर्म है उसने झूठ बोल कर भी अपने साधू धर्म की रक्षा की है । इस पर कोई बहस नही हो सकती है
Sunday, November 22, 2009
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