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राष्ट्रगीत _1_मेरा देश महान
मेरा देश महान वंदे मातरम
करलो इसे प्रणाम वंदे मातरम
वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम वंदे मातरम।
स्वतंत्रता का हर पावन दिन
हमको याद दिलाता है
इस आजादी की खातिर
वीरों ने खून बहाया है
संविधान है महान वंदे मातरम
कर लो इसे प्रणाम वंदे मातरम
पतित पावनी गंगा की धारा
सरजू का यहां संगम प्यारा
खड़ा हिमालय सीना ताने
सागर ने भी चरण पखारा
देव भी करें प्रणाम वंदे मातरम वंदे मातरम
चंद्रशेखर आजाद भगत सिंह
हंसकर फांसी झूल गए
झांसी की रानी से लड़ कर
अंग्रेज वीरता भूल गए
नारी भी यहां महान वंदे मातरम
कर लो इसे प्रणाम वंदे मातरम
धर्मों का गुलदस्ता प्यारा
भारत देश हमारा न्यारा
सत्य अहिंसा और एकता
मानवता हो हमारा नारा
गाते गीता और कुरान वंदे मातरम कर लो इसे प्रणाम वंदे मातरम
डॉ सुधा चौहान राज इंदौर
la 1- झंडे का दिन
सुबह के छः बजे थे सूर्य की किरणे चारों ओर अपनी स्वर्णिम आभा बिखेर रही थी। हवा मंद मंद चल रही थी। बगीचे में खिले फूलों की महक सारे वातावरण को तरोताजा बना रही थी। इस समय तक बहुत से लोग सुबह की सैर को निकल पड़ते हैं। मैं भी उनमें से एक थी। यह हमारी कालोनी से करीब दो किलोमीटर दूर का हिस्सा था। यहां पर बड़ी बड़ी मल्टियांें का निर्माण हो रहा है। जिस कारण वहां काम करने वाले बहुत से मजदूर लोग वहां पर अपनी अपनी झोपड़ी बनाकर रहते हैं। उन लोगों के कारण वहां पर चहल पहल रहती है। उनके बच्चे वहां पर गोला बनाकर खेलते रहते हैं।
आज छब्बीस जनवरी का दिन था सर्दी बहुत थी, बाहर घना कुहरा था, सड़क पर इक्का दुक्का लोग ही नजर आ
रहे थे, ऐसे में मैं सुबह सबेरे ही उठकर षाल लपेट कर वाक पर चल दी, आज सब ओर एक ही नजारा था, बच्चे उत्साह में भरकर स्कूल जा रहे थे, हर ओर देष प्रेम के गीत सुनाई दे रहे थैंे भी इन्हीं नजारों में खोई चली जा रही थी तभी मैंने देखा कि एक बारह तेरह साल का लड़का साइकिल चलाता हुआ तेजी से आया ओर चिल्लाकर बोला-आओ आओ जल्दी आओ, सब लोग आओ ...... आज झंडे का दिन है। यह कह कर उसने अपने साथ लाया छोटा सा झंडा साइकिल में लगा दिया और तनकर खड़ा होगया । बाकी बच्चंे उसके सामने आकर खड़े हो गए और वह जनगण मन गानेलगा। सभी बच्चे भी उसके साथ गाने लगे। यह देखकर बस्ती के लोग भी आकर खड़े हो गए। और उसका साथ देने लगे। मैं मन
में कौतुहल लिए उसे अब तक देख रही थी औेेेेेर अब मैं अपने आप को ना रोक सकी और उनके पीछे जाकर खड़ी होकर जनगण मन गाने लगी। मेरा मन उस बालक के देष प्रेम को देख कर अविभूत था।
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2- इंसानियत
एक बूढ़ा मदारी था उसके पास संपत्ति के नाम पर केवल एक बंदर था जिसे नचा कर मिलने वाले पैसों से वह अपना पेट पालता था। वह मदारी उस बंदर को अपने बेटे की तरह प्यार करता था। उसके खाने पीने और सुविधा का पूरा खयाल रखता था। वह उससे अपने सुख दुख की बातें भी करता था, जब कभी मदारी की आंखों से आंसू बहते तो वह बंदर उसकी गोद में बैठ कर अपने हाथों से उसके आंसू पोछता था और फिर कला बाजी दिखा कर उसे हंसाने की कोषिष करता था।
एक बार
मदारी को बुखार आ गया और वह तीन चार दिन से बुखार में पड़ा तड़प रहा था, पर उसकी देखभाल करने वाला कोई नहीं था। बंदर का तमाषा ना दिखा पाने के कारण उसके पास खाने को भी कुछ नहीं था। वह दोनों ही तीन दिन से भूखे थे। मदारी ने सोचा बुखार में मैं तो बाहर आ जा नहीं सकता और मेरे साथ यह बानर भी भूखा प्यासा मर रहा है। मुझे इसके साथ एसा नहीं करना चाहिए। मैं इसे छोड़ दूं तो यह जंगल में चला जायेगा और अपना पेट भर कर आराम से जीवित रह सकेगा। यही सब सोच कर उसने उसे जंजीर से खोल दिया और उसके सिर पर हाथ रखा कर कहा-- जा आज से तू आजाद है। इस षहर से बहुत दूर जंगल में चले जाना और अपनी बानर जाति के साथ मिल कर रहना ।
बंदर उछलता हुआ खुष हो कर बाहर चला गया और कुछ ही देर में छलांग भरता हुआ एक पेड़ पर जा बैठा। कुछ ही देर में उस पेड़ के नीचे से एक केला बेचने वाले का ठेला निकला। बंदर ने उसे कुछ देर तक देखा फिर कुछ सोचा और छट से पेड़ के नीचे आकर केले के ठेले पर कूदा और एक बड़ा सा केले का गुच्छा उठा कर फिर पेड़ पर चढ़ गया।
केले वाला
जब तक कुछ समझता तब तक बंदर जा चुका था वह कुछ भी ना कर सका और जल्दी ही वहां से अपना ठेला लेकर चला गया। बंदर कुछ देर बाद छलांग लगाता हुआ वापस मदारी के पास आया और उसकी गोद में उसने वह सारे केले रख दिये।बंदर और केला को देखकर मदारी सब समझ गया और आंखों में आंसू भर कर बोला-- तू फिर वापस इस बंधन में आ गया रे! इतनी इंसानियत तो इंसानों में भी नहीं है, अच्छा हुआ तू इंसान नहीं है।
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3-बरगद की छांव
वह जून का महीना था आसमान से मानो आग बरस रही थी। ऐसे में हम सब परिवार सहित चाचा के बेटे की ष्षादी में ष्षामिल होने गांव पहुंचे, उफ! वे भी बुंदेलखंड का पहाड़ी इलाका वाला गांव। गांव के बाहर ही बड़ा सा पहाड़ था, जो यथा नाम तथा गुण को साबित करता हुआ अडिग होकर मानों सभी को चुनौति सी दे रहा था, उत्तर से आने वाली सारी हवा को रोककर सभी का मुंह चिड़ा रहा था।
बिजली ना
होने के कारण बिद्युत के कोई उपकरण नहीं चल पा रहे थे, ऐसा नहीं कि गांव में लाइट नहीं थी, बिजली के खंबे किसी सजग प्रहरी की तरह साना ताने खड़े हुए थे, पर उनमें विद्युत प्रवाह का आगमन कभी कभी ही होता था और जब होता था तो सारे गांव वालों की होली दीवाली और ईद एक साथ हो जाया करती थी।
दादी हम
सभी को अंदर ले गईं, तो बड़ी भाभी ने झट से दरवाजा बंद कर कहा-बाहर लू चल रही है, इसे बंद ही रने दो, पर यह क्या? ए. सी. कूलर के गुलाम हो चुके लोगों को कुछ ही देर में परेषानी होने लगी । किसी को बेैचैनी हो रही, किसी को चक्कर आ रहा, किसी का सिर दुख रहा हैै। और उसके बचाव में कोई नीबू का ष्षरबत पी रहा है, कोई हाथ का पंखा झल रहा है, तो कोई चाय पी रहा है यानि कि बीमारी एक पर सब अपने अपने उपाय कर रहे हैं।
दस साल की सोनल ने बाहर बैठे दादा जी को इन ष्षहरी बाबुओं की सारी कहानी हंसते हुए सुनाई।
दादा जी ने सभी को बाहर बुलाया, तो सभी मुंह पर कपड़ा लपेट कर डरते हुए उनके समीप पहंुचे। वहां बरगद पीपल और नीम के पेड़ लगे हुए थे। दादा जी बरगद की छांव में बैठे हुए थे। सभी उनके सामने पड़ी हुई चार पाई पर सहमे हुए से बैठ गए।
दादा जी
ने कहा सभी अपने मुंह खोलो। सभी ने चेहरे पर से कपड़ा हटाया तभी एक ष्षीतल ठंठी हवा के झोंके ने मानों उनका स्वागत किया। उसका स्पर्ष उन सभी को बहुत अच्छा लगा सभी ने मुस्कराकर एक दूसरे को देखा और बरगद के पेड़ को सिर उठाकर देखा।
दादा जी
ने कहा-बच्चों ये पेड़ पौधे मानव को दिया हुआ प्रकृति का उपहार है। ये व।नस्पतियां हमें जीवन देती हैं। आक्सीजन द्वारा और औपधि द्वारा ये अन्न उपजा कर हमारा पालन करती हैं। इनसे हमें इमारती लकड़ी मिलती हैं। इनके कारण ही बरसा होती है। वृक्ष हमारे मित्र हैं इसलिए हमें इनका संरक्षण करना चाहिए, इनकी देख भाल करनी चाहिए, अपने अपने घर के आस पास, जहां भी संभव हो पेड़ पौघे लगाना चाहिए। बच्चो! तुम जानते हो कि नीम, पीपल और बरगद कार्वन डाइआक्साइड को सोख कर हमें सबसे ज्यादा आक्सीजन देने वाले वृक्ष है। किसी कवि ने कहा है-
नारी पटावाॅं कूप जल नीम पीपल बरगद की छांय।
गरमी में ठंडा करें ठंडी में
तन मन गरमाय
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4- असर
रीना और
रोहित को षादी को बारह साल हो गए थे। वह प्यारे प्यारे दो सुन्दर बच्चे नौ साल के मोहित और सात साल की बेटी मीना के माता पिता भी थे, पर अभी भी बच्चों की तरह लड़ते रहते थे।
अरे रीना
तुमने मेरा नाष्ता नहीं लगाया, जल्दी करो। बस अभी लाई मोहित और मीना का टिफिन लगा दूं। अरे यार तुमसे कितनी बार कहा कि पहले मेरा काम किया करो पर तुम हो कि सुनती नहीं, मैं रोज आफिस के लिए लेट हो जाता हूं। इसीलिए मैं
कहता हूं कि तुम मेरा पीछा छोड़ो और जाकर अपनी मां के घर पर आराम से रहो, मैं सौ बार कह चुका हूं कि मैं अकेला रहना चाहता हूं, पर नहीं तुम तो जोंक की तरह रोज मेरा खून पीकर खुष हो रही हो। हर रोज का यही तमाषा था कभी रोहित रूठकर चला जाता तो कभी रीना बिना कुछ खाये आंसू पोंछती आफिस जाती।
रोज रोज
की इस नोक झोंक का असर दोनों बच्चों पर पड़ रहा था पर माता पिता को तो अपनी लड़ाई और अपने अहम से फुरसत ही नहीं थी कि बच्चों की मनोदषा को समझे। वह दोनों भी आपस में बहुत लड़ाई करते और डांट खाते थे ।
वह छुट्टी का दिन था रोहित पेपर पढ़ रहा था और मीना किचिंन में नाष्ता बना रही थी। तभी मोहित रोता हुआ आया और बोला- मम्मी, मैं मीना के रोज रोज के झगड़ों से तंग आ गया हूं अब मैं इसकी षकल भी नहीं देखना चाहता। आप इसे होस्टल पहुंचा दो या नानी के घर भिजा दो, नही तो मैं किसी दिन इसकी जान ले लूंगा।
नौ साल के मोहित की ये बात सुनकर रोहित और रीना हक्के बक्के से एक दूसरे को देख रहे थे।
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